दोपहर
खामोश पग्दंदियाँ
धुप और छाँव
अपनी बातों में गुमसुम
चुप चुप कदम
कुछ धरा से
कुछ धुल कणों
को सुनते हुए
लम्बे दरख़्त
झुरमुटों से उतरती किरणें
वो कचनार की सुन्दर कलियाँ
मेरे गालों से लिपट सी गयी
दो कलियाँ
दो होठों पर आकर
नृत्य करते हुए
आँखों में झाँक कर बोली
और फिर क्या था
ह्रदय ने
आत्मा ने
पूर्ण प्रेम में नहाकर
अपना प्रेम
उन पर उंढेल कर
अनंत मुस्कान
अनंत स्नेह
और फिर अचानक
आँखों ने बंद होकर
उन कलियों को गले से लगा लिया
और फिर हवाओं ने आकर
होठों से कहा
और फिर पूरा माहोल
प्रेम मय होकर
प्रेम में डूब गया।
डॉ। बी ऍम शर्मा।
Monday, March 22, 2010
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